भारत में आरक्षण प्रणाली: उद्देश्य, प्रभाव और चुनौतियाँ

 भारत में आरक्षण प्रणाली एक संवैधानिक प्रावधान है, जिसका उद्देश्य समाज में वंचित और पिछड़े वर्गों को समाज की मुख्य धारा में लाना है। वंचित समुदायों को शिक्षा और रोजगार व राजनैतिक प्रणाली में अपनी भागीदारी बढ़ाने के उद्देश्य से आरक्षण दिया जाता है। यह व्यवस्था सामाजिक समानता या सामाजिक न्याय प्रदान करने का एक प्रयास है। 

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आरक्षण प्रणाली: उद्देश्य, इतिहास, प्रकार और समकालीन बहसें

आरक्षण की परिभाषा और उद्देश्य

किसी विशेष वर्ग को शिक्षा, रोजगार, राजनीति आदि क्षेत्रों में प्राथमिकता देना। भारत में आरक्षण के लाभार्थी सामाजिक रूप से या शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को दिया जाता है। जो इतिहास के कभी असमानता के शिकार रहे है। वर्तमान समय में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण प्राप्त है। 

आरक्षण व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य समाज के पिछड़े और वंचित समुदायों को मुख्य धारा में लाना है। भारतीय इतिहास में असमानता और भेद भाव के कारण समाज के कुछ वर्गों का विकास अवरुद्ध हुआ और वे समाज के पिछड़ते गए। इन्हीं समुदाय का विकास आरक्षण का मुख्य उद्देश्य है। आरक्षण के माध्यम से समाज में समानता सुनिश्चित करना, शिक्षा और रोजगार के अवसर प्रदान कर विकास की आधारशिला रखना। राजनीतिक में वंचित वर्गों की भागीदारी से लोकतंत्र को मजबूत प्राप्ति होगी। 

भारत में आरक्षण का इतिहास

भारतीय समाज में असमानता और भेद भाव की जड़े बहुत ही पुरानी और गहरी है। जिससे निपटने के लिए आरक्षण की व्यवस्था ब्रिटिश शासन काल से ही प्रारंभ की गई। सर्वप्रथम आरक्षण से सुस्पष्ट प्रावधान 1902 में मिलते है। 1092 में कोल्हापुर के शासक छत्रपति शाहूजी महाराज ने पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण प्रारंभ किया।
1919 के मार्ले मिंटो सुधार के माध्यम से मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन की व्यवस्था की गई। जो आरक्षण का रूप माना जा सकता है। 
1932 के डॉ. भीमराव अंबेकर और महात्मा गांधी के मध्य पुना समझौता, जिसमें दलितों को प्रथक निर्वाचन के बजाय आरक्षित सीटें देने का समझौता हुआ। 1935 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया कि दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए जाए। 
1935 के भारत शासन अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान था। 

आरक्षण व्यवस्था का संवैधानिक आधार

भारत के संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करने का उल्लेख मिलता है। जो आरक्षण की मूल भावना दर्शाता है। 
अनुच्छेद 15 भेद भाव का प्रतिरोध अनुच्छेद: 15(1) और अनुच्छेद 15(2) के अनुसार राज्य किसी नागरिक के साथ केवल धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर भेद भाव नहीं कर सकता है।
अनुच्छेद 15(4) पहला संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 के अनुसार राज्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान करने के सक्षम होगा। 
अनुच्छेद 15(5) 93 वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2005 राज्य को शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण प्रदान करने की अनुमति देता है। 
अनुच्छेद 15(6) 103 वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2019 आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों को आरक्षण के लिए संसद द्वारा पास किया गया अधिनियम। 
अनुच्छेद 16 समान अवसर का अधिकार: अनुच्छेद 16(1) और अनुच्छेद 16(2) तहत राज्य सभी नागरिकों के लिए लोक नियोजन कार्यों के अवसर की समानता प्रदान करता है। 
अनुच्छेद 16(4), अनुच्छेद 16(4A) और अनुच्छेद 16(6) के माध्यम से क्रमशः पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति वर्गों को प्रोन्नति के आरक्षण और आर्थिक रूप से कमज़ोर समुदाय को सरकारी नौकरी के आरक्षण का प्रावधान करता है। 
अनुच्छेद 243(D) के अनुसार पंचायतों और अनुच्छेद 243(T) के अनुसार नगर निकायों (municipalities) में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। इसी प्रकार अनुच्छेद 330 लोकसभा और अनुच्छेद 332 राज्य विधानसभा में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान करता है। 
103 वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2019 इस संशोधन के माध्यम से आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (Economically Weaker Sections) के लिए आरक्षण दिया गया। यह आरक्षण शिक्षा और लोक नियोजन के 10% आरक्षण का प्रावधान है। 

आरक्षण व्यवस्था पर संविधान सभा में बहस

संविधान निर्माण प्रक्रिया के दौरान आरक्षण के विषय पर गहन चर्चा की गई। यह चर्चा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक महत्व को केंद्र में रखकर की गई थी। इस चर्चा में महत्वपूर्ण भूमिका डॉ. भीमराव अंबेडकर ने निभाई। बाबा साहब खुद भी एक दलित परिवार से थे। एक दलित व्यक्ति अपने समाज के प्रति होने वाले सभी दुख, प्रताड़ना आदि से परिचित थे।  
वे संविधान निर्माण में संविधान का प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। डॉ. अम्बेडकर आरक्षण के समर्थक थे। उन्होंने संविधान को सामाजिक न्याय के लिए एक महत्वपूर्ण रास्ता माना। वर्षों से पीड़ित समुदायों को केवल कानून से समानता नहीं मिल सकती बल्कि "वास्तविक समानता" आवश्यक है। 
डॉ. भीमराव अंबेडकर: "आप एक वर्ग को सदियों तक दबाते हैं और एक दिन कहते हैं कि अब सबको बराबरी से दौड़ना है - क्या यह न्याय है?"

आरक्षण के प्रमुख प्रकार

भारत में आरक्षण सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को प्राप्त है। विभिन्न न्यायिक निर्णयों के बाद आरक्षण निम्न प्रकार से वर्गीकृत है। 

अनुसूचित जाति (SC) के लिए आरक्षण: अनुसूचित जाति (Scheduled Castes) वे वर्ग है जो इतिहास में समाजिक भेद भाव, छुआछूत के कारण पिछड़े रहे है। इन्हें समाज की मुख्य धारा में लाना आवश्यक है। संविधान द्वारा इन्हें विशेष सुरक्षा प्रदान की गई है। केंद्र स्तर पर इन्हें 15% आरक्षण मिलता है।
इस समुदाय को शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश और लोक नियोजन के महत्व कार्यों की नियुक्ति और पदोन्नति के साथ साथ संसद और राज्य विधानसभा की सीटों पर भी आरक्षण प्राप्त होता है। इसके साथ पंचायत और नगर निकायों के स्तर भी आरक्षण व्यवस्था लागू है। 
अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए आरक्षण: अनुसूचित जनजातियां (Scheduled Tribes) वे जनजातियाँ है, जिनके पिछड़ने का कारण भौगोलिक आधार है। जो भौगोलिक आधार के कारण सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ है। संविधान के अनुसार ऐसी जनजातियों को शैक्षणिक संस्थान और लोक नियोजन के कार्यों में 7.5% के आरक्षण का प्रावधान है। 
अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC): अन्य पिछड़ा वर्ग (Other Backward Class) समुदाय जो शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े माने जाते है। मंडल आयोग की सिफारिश के आधार पर इन्हें 27% आरक्षण प्रदान किया गए है। 
आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS): आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग (Economically Weaker Sections) ये सामान्य वर्ग (General Category) का वह भाग है जो आर्थिक रूप से कमज़ोर है, परन्तु SC, ST या OBC वर्गों में शामिल नहीं है। इन 10% आरक्षण की प्राप्ति है। जिनकी वार्षिक आय 8 लाख से कम है। 

आरक्षण के पक्ष और विपक्ष की दलीलें

आरक्षण एक अत्यंत संवेदनशील और विचारणीय विषय है। जहां इसके पक्ष और विपक्ष के हमेशा तर्क किया जा सकता है। आरक्षण के पक्ष के लोग सामाजिक न्याय और समानता के अवसरों का साधन मानते है जबकि विपक्ष के लोग प्रतिभा के विरुद्ध हथियार बताते है। 

आरक्षण के पक्ष में तर्क 

  • ऐतिहासिक अन्याय की भरपाई सदियों तक दलित, जनजातियाँ और पिछड़े वर्ग सामाजिक उत्पीड़न और भेदभाव का शिकार रहे हैं। आरक्षण उनके उत्थान और सशक्तिकरण का एक जरिया है।
  • समान अवसर की गारंटी केवल समान अधिकार देना पर्याप्त नहीं, जब तक समान अवसर न दिए जाएँ। आरक्षण उन्हें उन अवसरों तक पहुँचने में मदद करता है, जो सामाजिक बाधाओं के कारण दूर रहे हैं।
  • राजनीतिक प्रतिनिधित्व आरक्षित वर्गों को विधायिकाओं और पंचायतों में प्रतिनिधित्व देना लोकतंत्र को अधिक समावेशी बनाता है।
  • सकारात्मक भेदभाव (Positive Discrimination) यह एक नीति है जो कमजोर वर्गों को बराबरी पर लाने के लिए अस्थायी विशेषाधिकार देती है।
  • सामाजिक संतुलन आरक्षण सामाजिक असमानता को धीरे-धीरे मिटाकर समाज में संतुलन स्थापित करने का प्रयास करता है।

आरक्षण के विरोध में दलीलें

  • योग्यता की उपेक्षा आरक्षण के कारण कई बार कम अंक पाने वाले उम्मीदवारों को चुना जाता है, जिससे मेधावी छात्रों/उम्मीदवारों के अवसर घटते हैं।
  • जातिवाद को बनाए रखने का आरोप जाति आधारित आरक्षण से समाज में जातिगत पहचान और विभाजन और गहराते हैं, जबकि लक्ष्य होना चाहिए जातिविहीन समाज।
  • राजनीतिक दुरुपयोग कई बार आरक्षण का उपयोग राजनीतिक लाभ और वोट बैंक की राजनीति के लिए किया जाता है।
  • क्रीमी लेयर का लाभ पिछड़े वर्गों में भी सम्पन्न और जागरूक लोग बार-बार आरक्षण का लाभ उठाते हैं, जबकि वास्तव में ज़रूरतमंद पीछे रह जाते हैं।
  • अस्थायी उपाय का स्थायी रूप में विस्तार संविधान में आरक्षण की अवधि 10 वर्ष तय की गई थी, लेकिन यह 70+ वर्षों से लगातार बढ़ता आ रहा है।

आरक्षण पर हाल की घटनाएं और न्यायालय के फैसले

भारतीय न्यायपालिका और सरकार ने समय-समय पर आरक्षण को लेकर कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए हैं। हाल की कुछ घटनाएं और न्यायिक फैसले इस बात को दर्शाते हैं कि आरक्षण न केवल संवैधानिक और सामाजिक रूप से एक ज्वलंत मुद्दा है, बल्कि यह सत्ता, समानता और सामाजिक न्याय के संतुलन से भी जुड़ा हुआ है।

EWS आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला (2022)

पृष्ठभूमि: 103वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2019 के तहत आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) को 10% आरक्षण दिया गया। इसमें सामान्य वर्ग के गरीब शामिल किए गए, जो SC/ST/OBC में नहीं आते।
मुद्दा यह था कि क्या यह संशोधन संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करता है?
5-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 3:2 के बहुमत से इसे संवैधानिक माना।
कोर्ट ने कहा कि आर्थिक आधार पर आरक्षण देना संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता।
SC/ST/OBC को EWS आरक्षण से बाहर रखने को भी वैध बताया।
यह निर्णय आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को सामाजिक न्याय के दायरे में लाने की दिशा में महत्वपूर्ण माना गया।

मराठा आरक्षण मामला – सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (2021)

पृष्ठभूमि: महाराष्ट्र सरकार ने मराठा समुदाय को OBC श्रेणी में शामिल कर 12–13% आरक्षण देने की कोशिश की।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 50% आरक्षण सीमा को पार नहीं किया जा सकता (Indra Sawhney केस, 1992 की पुष्टि)।
मराठा आरक्षण को असंवैधानिक करार दिया गया।
यह निर्णय फिर से यह स्थापित करता है कि आरक्षण की सीमा को विवेकपूर्ण रूप से लागू करना जरूरी है।

प्रोन्नति में आरक्षण पर न्यायालयों के विचार

सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में स्पष्ट किया है कि राज्य सरकारें सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में आरक्षण केवल तभी दे सकती हैं जब पिछड़ेपन के ठोस आँकड़े उपलब्ध हों या पर्याप्त प्रतिनिधित्व की कमी हो या प्रशासनिक दक्षता पर कोई नकारात्मक प्रभाव न पड़े।
M. Nagaraj v. Union of India (2006)
Jarnail Singh v. Lachhmi Narain Gupta (2018)

राजस्थान में गुर्जर आरक्षण विवाद

घटना: राजस्थान में गुर्जर समुदाय ने विशेष पिछड़ा वर्ग (Special Backward Class) के तहत आरक्षण की माँग को लेकर कई बार आंदोलन किए।
सरकारी प्रयास: राज्य सरकार ने विशेष कानून बनाकर 5% अतिरिक्त आरक्षण देने की कोशिश की, लेकिन यह फिर 50% सीमा का उल्लंघन करता था।
मामला उच्च न्यायालय में विचाराधीन है।

2023-24 में मंडल 2.0 की चर्चा

राजनीतिक घटनाक्रम: बिहार, झारखंड, तमिलनाडु जैसे राज्यों में जाति आधारित जनगणना की माँग तेज़ हुई है।
उद्देश्य: वास्तविक सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के आँकड़ों के आधार पर आरक्षण नीति की पुनः समीक्षा।
प्रभाव: अगर केंद्र स्तर पर जाति आधारित आँकड़े सार्वजनिक होते हैं, तो आरक्षण नीति का नया खाका उभर सकता है।

निष्कर्ष

आरक्षण व्यवस्था आज भी भारत में सामाजिक न्याय और राजनीतिक विमर्श का केंद्र बनी हुई है। हाल के न्यायालयीन निर्णय इस ओर इशारा करते हैं कि आरक्षण को लेकर संविधान की मूल भावना को बनाए रखते हुए सुधार और संतुलन जरूरी है।सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि आरक्षण का उद्देश्य अवसर की समानता है, न कि स्थायी विशेषाधिकार।

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